शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (503) गतांक से आगे......

तारकासुर के सताये हुए देवताओं का ब्रह्माजी को अपनी कष्टकथा सुनाना, ब्रह्माजी का उन्हें पार्वती के साथ शिव के विवाह के उद्योग करने का आदेश देना, ब्रह्माजी के समझाने से तारकासुर का स्वर्ग को छोड़ना और देवताओं का वहां रहकर लक्ष्यसिद्धि के लिए यत्नशील होना  

देवताओं! मेरे ही वरदान से दैत्य तारकासुर इतना बढ़ गया है। अतः मेरे हाथों से ही उसका वध होना उचित नहीं। जो जिससे पलकर बढ़ा हो, उसका उसी के द्वारा वध होना योग्य कार्य नहीं है। विष के वृक्ष को भी यदि स्वयं सींचकर बड़ा किया गया हो तो उसे स्वयं काटना अनुचित माना गया है। तुम लोगों का सारा कार्य करने के योग्य भगवान् शंकर हैं। किन्तु वे तुम्हारे कहने पर भी स्वयं उस असुर का सामना नहीं कर  सकते। तारक दैत्य स्वयं अपने पाप से नष्ट होगा। मैं जैसा उपदेश करता हूं, तुम वैसा कार्य करो। मेरे वर के प्रभाव से ने मैं तारकासुर का वध कर सकता हूं, न भगवान् विष्णु कर सकते हैं और न भगवान् शंकर ही उसका वध कर सकते हैं। दूसरा कोई वीर पुरूष अथवा सारे देवता मिलकर भी उसे नहीं मार सकते, यह मैं सत्य कहता हूं। देवताओं! यदि शिव के वीर्य से कोई पुत्र उत्पन्न हो तो वही तारक दैत्य का वध कर सकता है, दूसरा नहीं। सुरश्रेष्ठगण! इसके लिए जो उपाय मैं बताता हूं, उसे करो। महादेवजी की कृपा से वह उपाय अवश्य सिद्ध होगा। पूर्वकाल में जिस दक्षकन्या सती ने दक्ष के यज्ञ में अपने शरीर को त्याग दिया था, वही इस समय हिमालयपत्नी मेनका के गर्भ से उत्पन्न हुई है।       (शेष आगामी अंक में)

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