इन्द्र द्वारा काम का स्मरण, उसके साथ उनकी बातचीत तथा उनके कहने से काम का शिव को मोहने के लिए प्रस्थान
आपत्काले तु मित्रस्याशक्तौ स्त्रीणां कुलस्य हि।।
विनतेः संकटे प्राप्तेअवितथस्य परोक्षतः।
सस्नेहस्य तथा तात नान्यथा सत्यमीरितम्।। (शि.पु.रू.सं.पा.खं.-17/12-13)
मित्रवर! इस समय मुझपर जो विपत्ति आयी है, उसका निवारण दूसरे किसी से नहीं हो सकता। अतः आज तुम्हारी परीक्षा हो जायेगी। यह कार्य केवल मेरा ही है और मुझे ही सुख देने वाला है, ऐसी बात नहीं। अपितु यह समस्त देवता आदि का कार्य है, इसमें संशय नहीं है। इन्द्र की यह बात सुनकर कामदेव मुस्काराया और प्रेमपूर्वक गम्भीर वाणी में बोला। काम ने कहा-देवराज! आज ऐसी बात क्यों कहते हैं? मैं आपका उत्तर नहीं दे रहा हूं ;आवश्यक निवेदनमात्र ही कर रहा हूंद्ध। लोक में कौन उपकारी मित्र है और कौन बनावटी- यह स्वयं देखने की वस्तु है, कहने की नहीं। जो संकट के समय बहुत बाते करता है, वह काम क्या करेगा? तथापि महाराज! प्रभो! मैं कुछ कहता हूं, उसे सुनिये। मित्र! जो आपके इन्द्रपद को छीनने के लिए दारूण तपस्या कर रहा है,आपके उस शत्रु को मैं सर्वथा तपस्या से भ्रष्ट कर दूंगा। (शेष आगामी अंक में)
