शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (493) गतांक से आगे......

भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिए आना, हिमवान द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना

क्योंकि सेवकों सहित आपने यहां आकर मुझे अनुग्रह का भागी बना दिया। देवेश! आप स्वतंत्र हैं। यहां बिना किसी विघ्न-बाधा के उत्तम तपस्या कीजिये। प्रभो! मैं आपका दास हूं। अतः सदा आपकी आज्ञा के अनुसार सेवा करूंगा।

ब्रह्मा जी कहते हैं-नारद! ऐसा कहकर गिरिराज हिमालय तुरंत अपने घर को लौट आये। उन्होंने अपनी प्रिया मेना को बड़े आदर से वह सारा वृतांत कह सुनाया। तत्पश्चात शैलराज ने साथ  जाने वाले परिजनों तथा समस्त सेवकगणों को बुलाकर उन्हें ठीक-ठीक समझाया। हिमालय बोले- आज से कोई भी गंगावतरण नामक स्थान में, जो मेरे पृष्ठभाग में ही है, मेरी आज्ञा मानकर न जाये। यह मैं सच्ची बात कहता हूं। यदि कोई वहां जायेगा तो उस महादुष्ट को मैं विशेष दण्ड दूंगा। मुने! इस प्रकार अपने समस्त गणों को शीघ्र ही नियंत्रित करके हिमवान् ने विघ्न निवारण के लिए जो सुन्दर प्रयत्न किया, वह तुम्हे बताता हूं, सुनो।    (अध्याय 11)                       (शेष आगामी अंक में)

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