शिवपुराण से (रूद्र संहिता तृतीय पार्वती खण्ड) (491) गतांक से आगे......

भगवान् शिव का गंगावतरण तीर्थ में तपस्या के लिए आना, हिमवान द्वारा उनका स्वागत, पूजन और स्तवन तथा भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार उनका उस स्थान पर दूसरों को न जाने देने की व्यवस्था करना

फिर हिमालय ने कहा-प्रभो! मेरे सौभाग्य का उदय हुआ है, जो आप यहां पधारे हैं। आपने मुझे सनाथ कर दिया। क्यों न हो, महात्माओं ने यह ठीक ही वर्णन किया है कि आप दीनवत्सल हैं। आज मेरा जन्म सफल हो गया। आज मेरा जीवन सफल हुआ और आज मेरा सब कुछ सफल हो गया, क्योंकि आपने यहां पदार्पण कने का कष्ट उठाया है। महेश्वर! आप मुझे अपना दास समझकर शान्तभाव से मुझे सेवा के लिए आज्ञा दीजिये। मैं बड़ी प्रसन्नता से अनन्यचित्त होकर आपकी सेवा करूंगा।

ब्रह्माजी कहते हैं-नारद! गिरिराज का यह वचन सुनकर महेश्वर ने किंचित आंखे खोली और सेवकों सहित हिमवान् को देखा। सेवकों सहित गिरिराज को उपस्थित देख ध्यानयोग में स्थित हुए जगदीश्वर वृषभध्वज ने मुस्कराते हुए-से कहा। 

महेश्वर बोले- शैलराज! मैं तुम्हारे शिखर पर एकान्त में तपस्या करने के लिए आया हूं। तुम ऐसा प्रबन्ध करो, जिससे कोई भी मेरे निकट न आ सके। तुम महात्मा हो, तपस्या के धाम हो तथा मुनियों, देवताओं, राक्षसों और अन्य महात्माओं को भी सदा आश्रय देने वाले हो। द्विज आदि का तुम्हारे ऊपर सदा ही निवास रहता है। तुम गंगा से अभिषिक्त होकर सदा के लिए पवित्र हो गये हो।            (शेष आगामी अंक में)

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