आत्मावलोकन और आत्ममंथन के लिए बाध्य कर सकता है उपराष्ट्रपति का इस्तीफ़ा (समसामयिक लेख)

पूनम चतुर्वेदी, शिक्षा वाहिनी समाचार पत्र।
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में उपराष्ट्रपति का इस्तीफा एक दुर्लभ घटना है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (2021) की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के संवैधानिक पदाधिकारियों में केवल 2.6% ने अपना कार्यकाल समाप्त होने से पहले इस्तीफा दिया है और इनमें से भी उपराष्ट्रपति स्तर के मामलों की संख्या बेहद कम रही है। यह एक ऐसा पद है जिसे आमतौर पर औपचारिक माना जाता है, किंतु इसकी संवैधानिक भूमिका और राजनीतिक व्याप्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस पद पर आसीन व्यक्ति न केवल राज्यसभा के सभापति होते हैं, बल्कि संसदीय प्रक्रियाओं के निष्पक्ष संचालन के लिए उत्तरदायी भी होते हैं। अतः, जब उपराष्ट्रपति इस्तीफा देते हैं, तो यह न केवल एक प्रशासनिक औपचारिकता होती है, बल्कि एक गंभीर राजनीतिक और संवैधानिक संकेत भी होता है।
भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में, जहां पर प्रत्येक राजनीतिक गतिविधि का सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव होता है, वहां इस स्तर पर इस्तीफा देना केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं होता। यह सत्ता की संरचना, नीति निर्धारण, गठबंधन की मजबूती और जनमानस के बीच विश्वास के स्तर पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है। इस प्रकार का कदम, चाहे वह नैतिक असहमति के कारण हो, रणनीतिक राजनीतिक repositioning हो या किसी व्यापक असंतोष की अभिव्यक्ति—उसका विश्लेषण केवल घटनात्मक स्तर पर नहीं, बल्कि उसकी संरचनात्मक और दीर्घकालिक परिणतियों के आधार पर किया जाना आवश्यक होता है। यह इस्तीफा न केवल एक व्यक्ति का पद छोड़ना है, बल्कि यह उस लोकतांत्रिक इमारत के भीतर एक कंपन है, जिसका प्रभाव दूर-दूर तक फैलता है। आज जब भारतीय लोकतंत्र एक संवेदनशील मोड़ पर खड़ा है, तो यह इस्तीफा हमें संविधान, संस्थाओं और जनविश्वास के बीच के संबंध को नए सिरे से देखने को बाध्य करता है।
भारतीय संविधान में उपराष्ट्रपति का स्थान एक विशिष्ट संतुलन का प्रतिनिधित्व करता है। यह पद, यद्यपि मुख्यतः औपचारिक माना जाता है, परंतु इसकी भूमिका राज्यसभा के सभापति के रूप में अत्यंत प्रभावी है। वह संसद के ऊपरी सदन की मर्यादा, कार्यप्रणाली और विधायी प्रक्रियाओं की निष्पक्षता के प्रतीक होते हैं। जब इस पद पर आसीन कोई व्यक्ति अचानक इस्तीफा देता है, तो यह कदम अपने आप में एक गहन प्रतीकात्मक अर्थ को जन्म देता है। यह न केवल संवैधानिक परंपराओं की स्थिरता पर प्रश्नचिह्न उठाता है, बल्कि यह सत्ता और विपक्ष के बीच की संवेदनशीलता, राजनीतिक असहमति और संस्थागत संतुलन को भी उजागर करता है।
इतिहास में कुछ ही बार ऐसा हुआ है जब उपराष्ट्रपति ने इस्तीफा दिया हो या उनकी भूमिका को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ हो। उदाहरण के लिए, भैरों सिंह शेखावत के कार्यकाल के दौरान सत्ता पक्ष के साथ उनके संबंधों में तनाव रहा था, हालांकि उन्होंने कार्यकाल पूरा किया। उनका आचरण इस बात को दर्शाता है कि यह पद केवल शोभायात्रा का नहीं, बल्कि एक संवैधानिक विवेक और गरिमा का वाहक है। ऐसे में अगर कोई उपराष्ट्रपति यह महसूस करता है कि उनकी भूमिका बाधित हो रही है, या लोकतांत्रिक संस्थाओं में उनकी भागीदारी को निष्प्रभावी बनाया जा रहा है, तो उनका इस्तीफा इस असंतुलन का सार्वजनिक प्रकटीकरण बन जाता है।
जब उपराष्ट्रपति जैसा पद खाली होता है, तो वह राजनीतिक नैरेटिव्स को पुनर्गठित करने का अवसर भी बनता है। सत्तारूढ़ दल को नए प्रत्याशी के चयन में विचार करना पड़ता है कि वह जातीय समीकरण, क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व और वैचारिक संतुलन जैसे सभी राजनीतिक समीकरणों को साधे। वहीं विपक्ष इस अवसर को सरकार की विफलता के रूप में भुना सकता है। इस प्रकार, उपराष्ट्रपति का इस्तीफा एक संवैधानिक घटना से अधिक, एक राजनीतिक संकेत और रणनीतिक क्षण बन जाता है।
एक सक्रिय संसद में उपराष्ट्रपति का इस्तीफा कई प्रक्रियात्मक अवरोध उत्पन्न करता है। चूंकि वे राज्यसभा के सभापति होते हैं, इसलिए उनके न रहने से कई विधेयकों पर चर्चा और निर्णय प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। विशेष रूप से तब, जब संसद का सत्र चल रहा हो, तब यह इस्तीफा कई महत्वपूर्ण बिलों की प्रगति को रोक सकता है, विपक्ष को रणनीतिक बढ़त दिला सकता है और सरकार की संसदीय रणनीति को कमजोर कर सकता है। इसके अतिरिक्त, उपराष्ट्रपति का इस्तीफा विधानपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन को क्षणिक रूप से डांवाडोल कर देता है। राजनीतिक दलों के लिए यह एक नया मोर्चा खोलने का अवसर बन जाता है। हर दल इस पद को अपने प्रभाव और वैचारिक शक्ति को बढ़ाने का एक मंच मानता है। चुनाव आयोग को तत्काल चुनावी प्रक्रिया शुरू करनी पड़ती है और ऐसे में सत्ता पक्ष को बहुमत, विपक्ष को एकजुटता और जनता को पारदर्शिता की उम्मीद रहती है। यही नहीं, यह इस्तीफा जनता के भीतर भी संदेह और संवाद को जन्म देता है। नागरिक सोचने लगते हैं कि आखिर ऐसी क्या स्थिति रही होगी कि एक इतना उच्च पद धारण करने वाला व्यक्ति इस्तीफा देने को विवश हुआ। क्या यह सरकार के किसी निर्णय के विरोध में है? क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों की उपेक्षा की प्रतिक्रिया है? या क्या यह किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा की तैयारी है? ऐसे प्रश्न केवल चर्चा तक सीमित नहीं रहते, बल्कि वे जनमत को आकार देने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद का इस्तीफा सामान्य नागरिकों में लोकतंत्र को लेकर एक नए प्रकार की चेतना और चिंता दोनों को जन्म देता है। एक ओर जहां यह उन्हें संविधान और उसकी प्रक्रियाओं के प्रति जागरूक बनाता है, वहीं दूसरी ओर यह उनके मन में यह सवाल भी खड़ा करता है कि क्या हमारी संस्थाएं स्वतंत्र रूप से कार्य कर पा रही हैं या वे राजनीतिक दबाव में हैं? 2019 के लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षण के अनुसार, जब भी कोई संवैधानिक अधिकारी इस्तीफा देता है, तब 58% नागरिकों की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर विश्वास में कमी आती है।
इस तरह का इस्तीफा आम जनता में दोहरी प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है—एक ओर उत्सुकता कि इसकी वजह क्या है और दूसरी ओर निराशा कि क्या हमारी संस्थाएं सुरक्षित हैं। खासकर यदि इस्तीफा स्पष्ट रूप से असहमति का प्रतीक है, तो यह सरकार के प्रति जनता की सोच को प्रभावित करता है। वहीं, अगर इस्तीफा मौन और बिना किसी बयान के होता है, तो यह अफवाहों और संदेहों को जन्म देता है, जिससे राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता को बल मिल सकता है। 
युवा वर्ग, छात्र समूह और नागरिक समाज इस प्रकार की घटनाओं को आंदोलनों और वैचारिक विमर्श का आधार बना लेते हैं। सोशल मीडिया, न्यूज़ चैनल और डिजिटल प्लेटफार्म पर यह मुद्दा रातों-रात चर्चा का विषय बन जाता है। अतः ऐसे समय में सरकार, मीडिया और संबंधित संस्थानों की जिम्मेदारी बनती है कि वे पारदर्शिता और उत्तरदायित्व को अपनाते हुए जनता को वस्तुस्थिति से अवगत कराएं, ताकि जनमत भ्रम में न पड़ जाए और लोकतंत्र की बुनियाद सुरक्षित बनी रहे।
जब कोई उपराष्ट्रपति इस्तीफा देता है, तो यह न केवल उनके व्यक्तिगत निर्णय का परिणाम होता है, बल्कि यह राष्ट्र के सामने संविधान की असल परीक्षा बनकर आता है। यह वह क्षण होता है जब हर संस्था—चाहे वह सरकार हो, न्यायपालिका हो या मीडिया—को यह सिद्ध करना होता है कि वह संवैधानिक मर्यादाओं की रक्षा के लिए सजग, संवेदनशील और जिम्मेदार है। यह इस्तीफा हमें पुनः यह सोचने को प्रेरित करता है कि क्या हमारे लोकतंत्र में संस्थागत स्वतंत्रता अब भी जीवित है? क्या विचारों की असहमति को सम्मानपूर्वक सुना जा रहा है? और क्या संवैधानिक पदों पर आसीन व्यक्तियों के पास अब भी वह नैतिक साहस है जो उन्हें जनहित में कठोर निर्णय लेने को प्रेरित करता है? अगर इसका उत्तर 'हाँ' है तो यह इस्तीफा हमारी लोकतांत्रिक चेतना को और अधिक सशक्त बनाएगा। और यदि उत्तर 'नहीं' है, तो यह एक चेतावनी है कि अब सुधार का समय आ चुका है, क्योंकि किसी एक व्यक्ति का पद छोड़ना, एक पूरी व्यवस्था को आत्मावलोकन और आत्ममंथन के लिए बाध्य कर सकता है और यही लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है।

संस्थापक-निदेशक

अदम्य ग्लोबल फाउंडेशन एवं न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन

आशियाना, लखनऊ, उत्तर प्रदेश

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